When Shri Hariram Vyas Ji felt that Kabirdas Ji has not been able to obtained Braj Ras.

Hari Ram Vyas Ji who believed to be the descension of Vishakha Sakhi, when he came to Vrindavan Dham, he took the shelter of Shri Hit Harivansh Mahaprabhu Ji and Swami Shri Haridas Ji and he immediately fell in love with Vrindavan and Radha Krishna. Although he was already Sidha Rasik Saint, and he often used to see the divine leelas of Yugal Sarkar, (but just to teach us a lesson that even a small Bhakta Apradh can almost destroy the complete sadhna of a sadhak) once he felt that “Kabir Das hardly understood the Braj Ras (Bliss of Braj)”. He cast aspersions on the integrity of Shree Kabir Das Ji and thought that Kabir Das has not been able to achieve the topmost bliss of Braj. As soon as he thought of this, he could no longer see the divine pastimes of Radha Krishna. Hit Harivansh Mahaprabhu concluded that Shri Krishna can never tolerate the offense towards his saints. Hari Ram Vyas Ji felt sorry and on the advice of his master "Hit Harivansh Mahaprabhu”, Vyas Ji wrote a few lines in praise of Kabirdas which are as such:

"कलि में सांचो भक्त कबीर ।
जबते हरि चरणन रति उपजि, तब ते बुनयो न चीर ।
दियो लेत न जांचै कबहूँ, ऐसो मन को धीर ।
जोगी, जती, तपी, सन्यासी, मिटी ना मन की पीड़ ।
पाँच तत्त्व ते जन्म न पायो, काल न ग्रसो शरीर ।
व्यास भक्त को खेत जुलाहों, हरि करुणामय नीर ।"

Vyas Ji saw in his visions that Kabir Das is manifesting from Yamuna Ji and Shri Krishna is following him and he again composed two lines which Shri Krishna himself composed of Kabir Das in his visions :

"मन ऐसा निरमल भया जैसे गंगा नीर ।
पीछे-पीछे हरि फिरैं कहत कबीर-कबीर ॥ "

Thakur Ji always follows his devotees and Now Kabir Das Ji replying to Thakur ji in below lines:

"कबिरा-कबिरा क्यूं कहें, जा जमुना के तीर ।
एक गोपी के प्रेम में बह गये कोटि कबीर ॥"

After watching this divine leela, Hari Ram Vyas Ji felt extreme happiness in his heart and now he can able to see the divine pastimes like before.

Once again proving the point from the above leela, that one must be very careful of the Offenses especially towards a saint.

हरिराम व्यास विशाखा सखी के अवतार माने गए हैं, और जब वे ब्रज में आये तो हित हरिवंश महाप्रभु और स्वामी हरी दस जी के शरण में गए और उनको तुरंत ही वृन्दावन और राधा कृष्ण से प्रेम हो गया | व्यास जी को ध्यान में युगल सरकार के लीला दर्शन सतत् होते थे परन्तु जब यह विचार मन में आया कि “वृन्दावन रस कबीर दास जी नहीं जान पायें” – मात्र इस से ही सूक्ष्म भक्तापराध के कारण युगल सरकार की छवि तुरंत अन्तर्धान हो गई ।

श्री हित हरिवंश जी ने समझाया कि श्री कृष्ण कभी भी अपने भक्त के प्रति किये अपराध को सह नहीं सकते और श्री हित हरिवंश जी के आदेशानुसार इस अपराध की क्षमाप्राप्ति की याचना हेतु व्यास जी ने कबीर दास जी की स्तुति में इस पद का गान किया –

कलि में सांचो भक्त कबीर ।
जबते हरि चरणन रति उपजि, तब ते बुनयो न चीर ।
दियो लेत न जांचै कबहूँ, ऐसो मन को धीर ।
जोगी, जती, तपी, सन्यासी, मिटी ना मन की पीड़ ।
पाँच तत्त्व ते जन्म न पायो, काल न ग्रसो शरीर ।
व्यास भक्त को खेत जुलाहों, हरि करुणामय नीर ।

व्यास जी ने देखा कि कबीर दास जी यमुना जी से प्रकट हुए और उनके पीछे पीछे प्रभु आ रहे हैं और ठाकुर जी ने कबीर के यश में गाया –

मन ऐसा निरमल भया जैसे गंगा नीर ।
पीछे-पीछे हरि फिरैं कहत कबीर-कबीर ॥

ठाकुर जी भक्त का भजन करते हैं । कबीर दास जी ने प्रभु को प्रतिउत्तर दिया –

कबिरा-कबिरा क्यूं कहें, जा जमुना के तीर ।
एक गोपी के प्रेम में बह गये कोटि कबीर ॥

इस अद्भुत लीला को देखकर व्यास जी का मन तृप्त हुआ एवं इसके उपरान्त ही युगल छवि फिर से व्यास जी के ध्यान में प्रकट हुई ।

Website: www.brajrasik.org

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