The character of Sevak Ji (Damodar Das) is very mysterious because he never met Shri Hitharivansh Ji, yet it is believed that he got direct grace of Shri Hit Harivansh Ji. He did not listen to his lectures, but he was the greatest knower of Hit Harivansh Mahaprabhu's "Rasopasna" theory which is "Radha Charan Pradhaan Nitya Vi
haar Upasna". He remained only ten days in Vrindavan and holds a position which no other disciple of Harivansh Ji has ever achieved.The proof is that his speeches are written today with the divine words of Shri Hit Harivans Ji in Shri Hit Chaurasi.
He was born in the year 1577 in Jabalpur, in a village named 'Gada'. He was born in a Brahmin family and from childhood, he was a devotee of Lord. In the same family, there was a person named Chattrabhuja das who was also a devotee like him.
In his village, once a few disciples of Shri Hit Harivansh Mahaprabhu reached 'Gada' while performing a preaching of Shri Hit Harivansh Mahaprabhu's "Rasopasna". After listening to the lectures, Sewak Ji and Chaturbujadas Ji were very impressed and they went to Vrindavan and decided to seek initiation from Shri Hit Harivansh Mahaprabhu. But unfortunately, Hitharivansh had entered into Nikunj Leela and it was heartbreaking for both of them. Chaturbujdas Ji then thought of taking initiation from Acharya Van Chandra Das, the eldest son of Hitharivsh Ji. He also offered the proposal to Sewak Ji, but Sewak Ji said that I have accepted Shri Harivish Mahaprabhu as my guru and there is no question at all of taking initiation from anyone else. Not only that, he said, he will take initiation only from Shri Hit Harivansh Ji else he will die, but will not take initiation from anyone else. Chaturujadas was amazed to see his exclusive devotion towards Hit Harivansh Mahaprabhu.
Chaturujadas Ji repeatedly requested Sewak Ji, but he failed and alone he went to Vrindavan and returned after taking initiation from Shri Acharya Vanchandra Das. But after returning, he was surprised to see that Sewak Ji is chanting the same mantra affectionately that Van Chand Ji had given him. Sewak Ji revealed that he was blessed with Harivansh Ji's kindness and he received the mantra in his dream from him. He even saw the divine Vrindavan in his dream which Shri Hit Harivansh Mahaprabhu revealed to him.
While chanting the mantra and while doing meditation of Radha Krishn, he received the divine wisdom and grace. The verses of Hatrvishnji's 'rasopasna' in 'Hit Chaurasi' theory began to sprout in his heart and he started writing the deep meanings of those, which became famous as the 'Sewak Vani' later. He was recognized as a commentator of Hitchaurasi Verses written by Shri Hit Harivansh Mahaprabhu . When Shri Van Chandra Ji, son of Shri Hit Harivansh Mahaprabhu, saw the deep meanings of those verses, he immediately ordered that the meaning written by Sewak Ji should be published with 'Hit Chaurasi'.
Van Chandra Ji was so much impressed by Sewak Ji that his desire to see Sewak Ji kept increasing day by day. He invited Sewak Ji to come to Vrindavan and Sewak Ji could not ignore the invitation of Van Chandra Ji. He himself was eager to visit Radha Vallabh Lal Ji at Vrindavan. So He considered this invitation as an invitation by Shri Radha Vallabh Ji. After reaching Vrindavan, he went to the temple of Shri Radha Vallabh. Van Chandara Das saw his 'bhava' while he was doing darshana' of Radha Vallabh and he immediately recognized that he could only be Damodar Das (Sewak Ji). He was happy and gave him love embrace. It is said that Sewak Ji could only live in Vrindavan for a few days (about 10 days). The day has arrived, when it was one year since Shri Hit Harivansh has entered Nikunj Leela and on the same day he was sitting in meditation state, It is believed that he also entered in Nikunj Leela under a tree in the Ras Mandal (also known as Raseshwari Radha Rani Mandir, near Seva Kunj). His Samadhi is also located at Raas Mandal.
श्री सेवक जी का चरित्र बड़ा रहस्यमय है क्यूंकि उन्होंने श्री हितहरिवंश जी का कभी साक्षात्कार नहीं किया पर वह उनके सबसे बड़े कृपापात्र थे | उन्होंने उनके उपदेश नहीं सुने परंतु वह उनके सिद्धांत के सबसे बड़े जानकार थे | वह वृंदावन में केवल 10 दिन रहे पर राधावल्लभ संप्रदाय में उन्हें जो स्थान प्राप्त है वह श्री हित हरिवंश जी के शिष्य परंपरा में किसी को नहीं है इसका प्रमाण यह है कि उनकी वाणी आजतक स्वयं श्री हित हरिवंश जी की वाणी श्री हित चौरासी के साथ लिखी और पढ़ी जाती है|
उनका जन्म 1577 के लगभग माना जाता है जबलपुर में गड़ा नामक एक गांव में उनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ एवं बाल्यकाल से ही व्यक्ति भाव में संपन्न थे | उसी परिवार में उत्पन्न श्री चतुर्भुजदास नामक एक व्यक्ति थे जो उन्हीं के समान निष्ठावान और भक्त परायण थे |
उनके गांव में एक बार श्री हितहरिवंश जी के कुछ शिष्य साधु भर्मण करते हुए गड़ा पहुंचे जहां हितहरिवंश जी के राधा कृष्ण के केली से संबंधित मधुर पदों का गान किया, पद सुनकर सेवक जी और चतुर्भुजदास जी बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने वृंदावन जाकर श्री हितहरिवंश जी से दीक्षा लेने का निश्चय किया |परंतु दुर्भाग्य से हितहरिवंश जी नित्य निकुंज पर प्रवेश कर चुके थे उनके अंतर्धान संवाद पाकर सेवक जी अत्यंत मर्माहत हुए| चतुर्भुजदास जी ने तब हितहरिवंश जी के जेष्ठ पुत्र आचार्य वनचंद्र दास जी से दीक्षा लेने का विचार किया | सेवक जी से भी उन्होंने यही प्रस्ताव किया पर सेवक जी ने कहा मैं हित हरिवंश जी को अपना गुरु मान चुका हूं, दूसरे किसी से दीक्षा लेने का प्रश्न ही नहीं उठता| इतनी ही नहीं उन्होंने कहा यदि हित हरिवंश दीक्षा देंगे तो ठीक, नहीं नहीं तो प्राण विसर्जन कर दूंगा|
चतुर्भुजदास जी ने सेवक जी से बार बार निवेदन किया परंतु वह असफल हुए और अकेले ही वह वृंदावन जाकर श्री आचार्य वनचंद्र दास जी से दीक्षा लेकर लौटे| लेकिन वापस लौट कर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ यह देखकर कि सेवक जी भी उसी मंत्र का प्रेम पूर्वक जाप कर रहे हैं जो वन चंद जी ने उन्हें दिया था |सेवक जी पर हित हरिवंश जी की कृपा हो गई, उन्होंने स्वप्न में स्वयं मंत्र देखकर दिव्य वृंदावन के दर्शन करा कर उन्हें कृतार्थ किया था| अनन्य भक्ति और निष्ठा में कितना बल है यह उन्होंने अपने उद्धारण से सिद्ध कर दिया|
मंत्र जाप करते करते और हृदय से ध्यान करते हुए उनकी बुद्धि में दिव्य ज्ञान होने लगा और हितचौरासी के पदों का गूढ़ अर्थ उनकी समझ में अपने आप आने लगा| हितहरिवंश जी की रसोपासना के सिद्धांत का रहस्य उनके हृदय में अंकुरित होने लगा और उन्होंने हितहरिवंश जी की वाणी करने वाले सूचक पदों का सृजन किया जोकि सेवक वाणी के नाम से प्रसिद्ध हुई| हितचौरासी के भाष्य के रूप में इसकी मान्यता हुई जब यह वाणी वृंदावन में श्री वन चंद्र जी, हितहरिवंश जी के सुपुत्र के पास पहुंची तो उन्होंने आज्ञा दी कि वह हितचौरासी के साथ ही लिखी और पड़ी जाया करें|
वन चंद्र जी उस वाणी से इतना प्रभावित हुए कि सेवक जी को देखने की उनकी उत्कंठा दिनों दिन बढ़ती गई| उन्होंने सेवक जी को वृंदावन आने के लिए निमंत्रण दिया और भेजने के साथ साथ निमंत्रण उन्होंने यह भी निश्चित कर लिया कि जिस दिन सेवक जी वृंदावन आएंगे उस दिन वह उनके आगमन की खुशी में श्री राधा वल्लभ जी का सारा वैभव लुटा देंगे| सेवक जी वन चंद जी के निमंत्रण की उपेक्षा नहीं कर सकते थे | वह स्वयं भी वृंदावन जाकर राधा वल्लभ जी के दर्शन करने को उत्सुक थे, वह इस निमंत्रण को उन्होंने श्री राधा वल्लभ जी का ही निमंत्रण माना पर जब उन्हें वन चंद्र जी के निश्चय का पता चला कि वह उनके वहां पहुंचने पर राधा वल्लभ जी का सारा वैभव लुटा देंगे तब वह संकट में दुविधा में पड़ गए, अंत में उन्होंने वेश बदलकर जाने का निश्चय किया जिससे वह पहचान में ना आएं और उनके कारण श्री राधा वल्लभ जी को किसी प्रकार की दिक्कत न हो |
पर वृंदावन पहुंचकर जब वह श्री राधा वल्लभ जी के मंदिर गए, तब वन चंद्र जी ने उनकी भावभंगिमा देख उन्हें पहचान लिया और आनंदित हो उन्हें प्रेम आलिंगन प्रदान किया| सेवक जी को भय हुआ कि कहीं वह अपने निश्चय के अनुसार श्री राधा बल्लभ का वैभव लुटा ना दें और उन्होंने हाथ जोड़ प्रार्थना की कि वह ऐसा कुछ ना करें| तब वन चंद्र जी को अपना निश्चय बदलना पड़ा | उन्होंने सेवक जी के उपलक्ष में केवल प्रसादी पदार्थों का ही वितरण किया |सेवक जी कुछ ही दिन (लगभग १० दिन ) वृंदावन में रह सके| कहते हैं कि एक दिन श्री हित हरिवंश के निकुंज गमन को एक ही वर्ष हुआ था, और उसी दिन वह रास मंडल (रासेश्वरी राधा रानी मंदिर, सेवा कुञ्ज के नज़दीक) में एक वृक्ष के नीचे ध्यान अवस्था में बैठे-बैठे निकुंज लीला में प्रवेश कर गए|
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